
सत्य, राजधर्म और युद्ध पर भगवान श्री कृष्ण के सन्देश जो आज भी प्रासंगिक है
भगवान श्रीकृष्ण की 16 कलाएं बताई गईं हैं. खास बात ये है कि ये सभी हमारे आपके जीवन से जुड़ी हुई हैं और आज भी प्रासंगिक हैं. आमतौर पर कहा जाता है कि रामायण हमें बताती है कि हमें क्या करना चाहिए और महाभारत बताती है कि हमें जीवन में क्या नहीं करना चाहिए लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की जो अलग अलग लीलाएं हैं वो हमें सिखाती हैं इस कलियुग में कैसे जीवन व्यतीत करना है. कलियुग से पहले, द्वापर था, जहां भाइयो ने ही अपने भाइयो के साथ छल किया और अपनी भाभी का भरी सभा में वस्त्रहरण किया. आज कलियुग में हालत इससे भी ज्यादा खराब हो चुकी है. ऐसे में कृष्ण के जीवन की सीख हमारे लिए बहुत ज़रूरी हैं.
कलियुग में हमारे लिए सबसे ज़रूरी है कि सत्य और ईमानदारी की परिभाषा के बारे में जानना. महाभारत में युधिष्ठिर का उदाहरण हमारे सामने है. हमेशा सच बोलने वाले युधिष्ठिर अगर द्रोणाचार्य के सामने भी अश्वत्थामा की मृत्यु के बारे में सच बोल देते तो क्या होता ? द्रोणाचार्य को युद्ध के मैदान में मारना फिर किसी के भी बस में नहीं था. कृष्ण की सीख के बाद भी युधिष्ठिर नहीं माने और 'नरो व कुंजरो बोल बैठे'. कृष्ण ने इसी पंक्ति पर शंख बजा दिया और द्रोणाचार्य ने दुख में आकर हथियार छोड़ दिए. महाभारत का ये प्रसंग बताता है कि सच कि कोई एक परिभाषा नहीं हो सकती है, हम जो बात कह रहे हैं आखिर में उसका लक्ष्य क्या है वही कोई परिभाषा तय करता है और भगवान कृष्ण ने ही सत्य की इस परिभाषा को गढ़ा है.
सत्य की तरह ही राजधर्म की भी सीख कृष्ण देते हैं. महाभारत के सभी योद्धाओं में भीष्म पितामह से महान कोई नहीं था. भीष्म पितामह ने भगवान परशुराम तक को पराजित कर दिया था लेकिन उन्हीं भीष्म को अपने पौत्र के हाथों निहत्थे मरना पड़ा था. भीष्म पितामह अपने पूरे जीवन में हस्तिनापुर की गद्दी को लेकर कर्तव्य को ही अपना धर्म समझ बैठे. उस गद्दी के लिए, उन्होंने काशीराज की कन्याओं का अपहरण किया, अपने गुरु परशुराम से युद्ध किया और आखिर में काशीराज की कन्याओं को आत्महत्या करनी पड़ी. जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था तब भी भीष्म पितामह देखते रहे क्योंकि दुर्योधन का तर्क था कि उसने द्रोपदी को चौपड़ के खेल में जीता है और उनके साथ वो कुछ भी कर सकता है. भीष्म जैसे योद्धा इस तर्क के सामने बैठे देखते रहे और राजसभा में कुकृत्य हो गया. जब महाभारत के युद्ध का समय आया तब भी भीष्म ने सिर्फ हस्तिनापुर के सिंहासन के नाम पर कौरवों का पक्ष चुन लिया. तमाम प्रतिज्ञाओं से भरे जीवन में भीष्म ने अपने लिए धर्म की एक सीमित परिभाषा को गढ़ लिया और उसे कभी पार नहीं कर पाए. भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की परिभाषा को भी एक नया स्वरूप दिया और वास्तविकता में बताया कि धर्म की परिभाषा भी परिस्थितियां तय करती हैं. अगर भीष्म ने भी सही पक्ष का चुनाव कर लिया होता, तो शायद महाभारत का युद्ध ही नहीं होता और बड़ा विनाश ही नहीं होता.
जिन कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, उन्हीं कृष्ण ने जरासंध के सामने 16 बार युद्ध का मैदान छोड़ा और वक्त आने पर बिना किसी शोर शराबे के जरासंध का अंत भी किया. जब जरासंध ने बार-बार कृष्ण को युद्ध के लिए उकसाया, तब उन्होंने एक नए राज्य द्वारिका की स्थापना भी की. 16 बार युद्ध का मैदान छोड़ने के कारण कृष्ण को रणछोड़ भी बोला गया लेकिन रण को छोड़ने का उनका मकसद केवल एक विनाश को टालना था. वो नहीं चाहते थे कि जरासंध के घमंड और मूर्खता की भेंट तमाम सैनिक और जनता चढ़ें. कृष्ण के जीवन का ये प्रसंग हमें बताता है कि जीवन में हमें आसान हल के बारे में भी सोचना चाहिए. सामने वाले को कभी कमजोर नहीं आंकना चाहिए. हमेशा महान और बड़े होने का घमंड लेकर आप जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते.
श्रीकृष्ण कभी सुदामा को अकूत धन देकर अटूट मित्रता का वचन निभाते नजर आते हैं तो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अतिथियों का पैर साफ़ करते हैं और जूठे पत्तल भी उठाते हैं. श्रीकृष्ण के जीवन को आज भी बारीकी से पढ़ने की ज़रूरत है, उनसे बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है. उनका जीवन और सीख हमारे लिए एक गुरु का काम कर सकते हैं, फिर शायद आपको कभी किसी कलियुगी गुरु के पास जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.
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