
क्यों तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कॉमरेड कन्हैया बेगूसराय नहीं जीत सकते?
देखिए बिहार के वोटरों के वोटिंग पैटर्न को समझना उतना भी मुश्किल नहीं है, जितना मीडिया के एक वर्ग ने हौव्वा बना रखा है. बिहार के वोटर्स पर आएंगे लेकिन सबसे पहले भूमिहार वोटर्स की बात..
दरअसल बेगूसराय सीट पर भूमिहारों का वही वर्चस्व है, जो औरंगाबाद सीट पर राजपूतों का है. मतलब बिना उनके समर्थन के सीट निकालना लगभग नामुमकिन है. चूंकि कन्हैया और गिरिराज सिंह इसी जाति से आते हैं. इसलिए मीडिया में इस बात की चर्चा है कि इस बार ये वोट बंटेगा. लेकिन धरातल पर ऐसा नहीं है. रणवीर सेना के उदय के बाद से ही भूमिहार जाति में लेफ्ट को लेकर आकर्षण ना सिर्फ खत्म हो गया है बल्कि विश्वास भी घटा है. और उसके अपने पर्याप्त कारण हैं.
बिहार में भूमिहार जाति के वर्चस्वशाली होने के पीछे सबसे बड़ा कारण है, उनकी जमीन. और जब 90 के दशक में लेफ्ट समर्थित माले, MCC ने उन्हीं जमीनों पर लाल झंडे गाड़ने शुरू किए तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित भी भूमिहार वर्ग ही हुआ. जिसके बाद भूमिहार नेता ब्रह्मेश्वर मुखिया के नेतृत्व में इन्हीं भूमिहारों ने लेफ्ट के खिलाफ हथियार उठा लिया. रणवीर सेना के बैनर तले भूमिहार जाति (कुछ-कुछ जगहों पर ब्राह्मण और राजपूतों )ने भी जमीन हड़पने का ना सिर्फ विरोध किया बल्कि एक सशस्त्र आंदोलन के जरिये हथियारबंद और हिंसक लेफ्ट धड़े को बैकफुट पर भी धकेला. और यहीं से बेगूसराय, आरा आदि लेफ्ट की गढ़ वाली जगहों पर उसकी सीटें घटनी शुरू हुईं और बीजेपी की बढ़नी शुरू हुई. इसीलिए एक राय ये है कि कन्हैया कुमार के प्रति भूमिहार वर्ग में हो सकता है सहानुभूति हो, लेकिन जब बात बतौर लेफ्ट उम्मीदवार उन्हें चुनने की आएगी तो भूमिहार मतदाता उस तरह आकर्षित नहीं हो पायेगा.
बिहार के पिछले कुछ चुनाव का आंकलन करने पर भूमिहार मतदाताओं का वोटिंग पैटर्न पता चलता है. दरअसल 2009 के लोकसभा चुनाव में 15 में से 12 और उसके बाद विधानसभा चुनाव में 102 में से 93 सीटें जीतने वाली बीजेपी को अगर किसी एक जाति का सबसे ज्यादा समर्थन मिला था तो वो भूमिहार जाति ही थी. तब के आंकड़ों के मुताबिक हर 10 में से 9 भूमिहारों ने बीजेपी पर भरोसा जताया था. कहा जाता है कि भूमिहारों में बीजेपी के प्रति एक सहज आकर्षण है. ठीक उसी तरह जैसे व्यापारी और शहरी वर्ग में बीजेपी के प्रति आकर्षण है.
बेगूसराय की भौगोलिक संरचना भी बीजेपी को बहुत सुहाती है. बिहार को सबसे ज्यादा रेवेन्यू देने वाले इस जिले में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनका या तो कहीं बिजनेस है या ठेकेदार हैं या फिर कोई अपना धंधा चलाते हैं. ये वो वर्ग है, जो बेगूसराय में ओपिनियन बनाता है और इस वर्ग को पाले में लाने के लिए बीजेपी को उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, जितना कि कटिहार या अररिया वगैरह में करनी पड़ती है. यहां लेफ्ट के साथ समस्या ये है कि वो उन इलाकों में ज्यादा मजबूत होती है, जहां हाशिये के लोग ज्यादा हों. और बेगूसराय इस पैमाने पर अपेक्षाकृत खरा नहीं उतरता.
तो फिर कन्हैया के नॉमिनेशन में इतनी 'भारी भीड़' क्यों थी.. इस सवाल पर बेगूसराय के ही एक बड़े पत्रकार मजाकिया लहजे में कहते हैं कि नॉमिनेशन तो छोड़िए बिहार में जेसीबी की खुदाई कहीं चल रही हो तो उसे भी देखने के लिए 300-400 की भीड़ इकट्ठी हो जाती है, उनके मुताबिक कई लोग तो स्वरा भास्कर को देखने के लिए पहुंचे थे. हो सकता है ये उनका आंकलन हो, लेकिन सच तो ये है कि बिहार में भीड़ जुटाना और वोट डलवाना दोनों अलग-अलग चीजें हैं और ये बात लेफ्ट पार्टियों से बेहतर कोई नहीं समझ सकता. शायद यही कारण है कि लेफ्ट की 'भूख मिटाओ लोकतंत्र बचाओ' रैली तो लाल झंडों से पट जाती है लेकिन जब बक्सा (मतपेटी) खुलता है तो लेफ्ट का उम्मीदवार बसपा से भी कम वोट पाया होता है.
(ये लेख विवेक सिंह के फेसबुक पेज से लिया गया है, विवेक ZEE Media Corporation में पत्रकार है।)
Post new comment