
जगहों के नाम बदलने में मुस्लिम शासकों और अंग्रेजी हुकूमत ने ग़दर मचा दी थी
यूपी में इलाहाबाद अब प्रयागराज हो गया है.आज से 435 साल पहले भारत के सम्राट अकबर ने प्रयाग का नाम इलाहाबाद कर दिया था. 435 साल बाद इलाहाबाद के साथ इतिहास ने खुद को दोहराया और फिर से इसका नाम बदलकर प्रयागराज हो गया.नाम बदलने का नाम लेते ही भारत में चाय की दुकान से लेकर किसी न्यूज चैनल में बैठा किराए के पैनलिस्ट भी पहला तर्क है-नाम बदलने से क्या होगा ,सड़के तो वहीं रहेंगी खस्ताहाल,या नाम बदलने से लोगों को रोजगार मिल जाएगा ?
खैर नाम बदलने का इतिहास भारत में बहुत पुराना है.तमाम प्राचीन शासकों ने शहर बसाए.मुसलमान शासकों ने अपने बाप-दादों से लेकर खुद तक के उल्टे सीधे नामों पर शहरों के नाम बदले.अब दिल्ली सल्तनत के मूर्ख शासक के तौर पर पहचाने जाने वाले मुहम्मद बिन तुगलक ने जब दिल्ली से राजधानी देवगिरी ले जाने का फैसला किया तो इसका नाम भी बदल दिया और दौलताबाद रखा.ये जगह तब से आज तक दौलताबाद ही है.गुजरात का अहमदाबाद पहले कर्णावती था. राजा बना अहमदशाह तो नाम शहर का नाम भी अहमदाबाद हो गया. बाबरी मस्जिद तो आज भी भारत में फसाद की जड़ है और इलाहाबाद का मामला तो ताजा हो ही गया है.इस मामले में शेरशाह सूरी नेक मालूम पड़ते हैं उन्होंने जीटी रोड बनवाई जो आज भी देश में विकास की सबसे बड़ी प्रतीक होती है लेकिन अपने नाम पर इसका नामकरण नहीं किया.मुगल शासकों ने शायद इसकी कीमत नहीं समझी होगी वर्ना बेशक इसका नाम भी जरूर बदलते.
मुगलों के बाद भारत में अंग्रेज आए.कहने को तो लुटेरों के तौर पर मुसलमान शासक बदनाम हैं लेकिन असली लुटेरे यही थे.इन्होंने न केवल भारत का सारा माल लूटकर इंग्लैंड पहुंचा दिया बल्कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.भारत के महानगरों में से आने वाले एक चेन्नई का नाम एक जमाने में मद्रासपत्तीनम हुआ करता था ,अंग्रेजों ने इसे मद्रास नाम दिया.अब अंग्रेजों की क्रूरता देखिए जब श्वीरंगपट्टम में अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को हराया तो उसका शव खोजने वाले डेविड बायर्ड के नाम पर दिल्ली में एक रोड का नाम रख दिया गया.हालांकि अब इसका नाम बंगला साहिब मार्ग हो गया है.ऐसे ही दिल्ली में एक किंग जॉर्ज एवेन्यू नाम की एक रोड थी.अंग्रेजों ने दरअसल अपने शासक को खुश करने के लिए इसे ये नाम दिया था.हालांकि इसका नाम भी अब राजाजी मार्ग हो चुका है.इतिहास में अंग्रेजों की इस क्रूरता के कई नायाब उदाहरण आपको पढ़ने को मिलेंगे.
अब आजादी के बाद के भारत पर आते हैं.गांधी,सुभाष और नेहरु और भगत सिंह जैसे तमाम लोग तो वाकई राष्ट्रनिर्माता थे और उनके नाम पर तो देश में स्मारक और सड़के होनी ही चाहिए.लेकिन गड़बड़ हुई गांधी परिवार के नाम वाद से.कांग्रेस सरकारों ने देश में तमाम योजनाएं और स्थानों के नाम गांधी परिवार के सदस्यों के नाम पर रही रखे.बेशक इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का हक भी देश पर बनता है लेकिन सारी योजनाएं जब उन्हीं के नाम पर आने लगें तो अच्छा नहीं लगता.देश में तमाम महापुरुष हुए हैं जिन्हें खुद इन्हीं सरकारों ने सम्मानित किया है.नैतिकता का तकाजा कहता है की 5 योजनाएं अगर गांधी परिवार के सदस्यों के नाम पर शुरु हों तो 3 इन महापुरुषों के नाम पर भी होनी चाहिए.
खैर कांग्रेस सरकारें तो पूर्वजों पर जाती थीं लेकिन हमारे यूपी की पूर्व सीएम मायावती ने तो खुद के नाम को ही आगे बढ़ा दिया.खुद की मूर्तियां लगवाईं और खुद के नाम पर ही योजनाएं भी चला दीं.शायद उन्हें ये संदेह होगा की बसपा में अगर कोई उनका उत्त्तराधिकारी आया भी तो वो उनके नाम को कितना सहेजेगा.
अब आते हैं मोदी-योगी की सरकारों पर.खुले शब्दों में कहें तो ये लोग वोट के बहुत बड़े पकड़ू लोग हैं.प्रयागराज नाम के पीछे इनकी ये मंशा हो सकती है.कुंभ का मेला भी होने वाला है.कुल मिलाकर मामला कुंभ मेले के जरिए अपनी हिंदूवादी छवि को चमकाने का मालूम पड़ता है.लेकिन फिर भी ये लोग वंशवादी और एक व्यक्तिवादी संस्था से ऊपर उठे हुए हैं.ये मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन करते हैं.दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलकर अब्दुल कलाम रोड करते हैं.कुल मिलाकर नाम वाली राजनीति में ये लोग तमाम लोगों को आगे बढ़ाते हैं.
पुराना इतिहास पढ़ने के बाद आपको समझ जाना चाहिए की नाम बदलने रखने का चक्कर ताकतवर लोगों की अभी तक अपनी इज्जत से जुड़ा हुआ था.बीजेपी के समय में इसमें राजनीतिक तड़का लग चुका है.ये तमाम लोगों के नाम को आगे बढ़ाकर अपनी राजनीति चमकाते हैं.अब इसमें इज्जत वाला कोई खेल नहीं है.
हालांकि पहले और अब दोनों वाले खेलों में एक समानता है.दोनों का ही विकास से कोई संबंध नहीं है.विकास हमेशा एक जैसा हुआ है और वो हमेशा एक जैसा होता रहेगा.
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